“माँ एक व्यक्ति” : मां को देवी नहीं, एक संपूर्ण इंसान के रूप में देखने की नई पहल

भोपाल, 20 मई।
क्या आपने कभी सोचा है कि आपकी मां की पसंदीदा चीजें क्या हैं? उनका प्रिय रंग, भोजन या फिर उनके अधूरे सपने क्या हैं? क्या आप जानते हैं कि सबके होने के बावजूद भी उनकी जिंदगी में वो चुपचाप सा अकेलापन क्यों है?

ऐसे ही गहरे और संवेदनशील प्रश्नों के साथ सामाजिक संगठन ‘सरोकार’ ने भोपाल में एक अनूठे संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसका उद्देश्य था—मां को सिर्फ त्याग और समर्पण की मूर्ति मानने के बजाय एक स्वतंत्र सोच रखने वाले व्यक्ति के रूप में पहचान दिलाना
यह कार्यक्रम “माँ एक व्यक्ति” अभियान के तहत आयोजित किया गया, जो मातृत्व की पारंपरिक अवधारणाओं को चुनौती देता है और मां के भी अपने सपने, इच्छाएं और पहचान को सामने लाने की वकालत करता है।

सवाल जिसने सबको चुप करा दिया

कार्यक्रम की शुरुआत उस सवाल से हुई, जिसने पूरा माहौल बदल दिया—
“क्या आप जानते हैं आपकी मां का बचपन का नाम क्या था? उन्हें क्या खाना पसंद है? उनका सपना क्या था? और अब क्यों है उनकी जिंदगी में अकेलापन, जबकि सब उनके आसपास हैं?”
इस सवाल के साथ सभागार में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया। हर चेहरा मानो आत्ममंथन में डूब गया—क्या हम वास्तव में अपनी मां को जानते हैं?

मां: एक त्याग नहीं, एक सोच और स्वप्नशील व्यक्ति

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रही टेक्नो इंडिया ग्रुप पब्लिक स्कूल की प्रिंसिपल डॉ. जेबा खान ने अपने विचार साझा करते हुए कहा,

“मां केवल एक रिश्ता नहीं है, वह एक इंसान हैं, जिनके अपने सपने, इच्छाएं और भावनाएं हैं। हम अक्सर उन्हें केवल ‘मां’ के रूप में देखते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के कितने रंग दूसरों के लिए त्याग दिए।”
उन्होंने यह भी कहा कि समाज की यह चुप्पी—जिसमें मां के भीतर के व्यक्ति को जगह नहीं दी जाती—हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है।

हर दिन है मां को समझने का अवसर

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय की अतिथि प्राध्यापक सुश्री दीपिका सक्सेना ने कहा,

“मां को समझने के लिए किसी विशेष दिवस की आवश्यकता नहीं है। लेकिन यह संवाद कार्यक्रम ऐसा अवसर है, जहां हम उनके स्नेह, त्याग और महत्वाकांक्षाओं पर ठहरकर सोच सकते हैं। हमें न सिर्फ उनके शारीरिक स्वास्थ्य, बल्कि भावनात्मक स्वास्थ्य की भी उतनी ही चिंता करनी चाहिए।”

उम्र नहीं, ऊर्जा की पहचान बनें मां

कोचिंग संस्थान संचालक अर्पित तिवारी ने अपनी 60 वर्षीय मां के उदाहरण से बताया कि कैसे वे उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे उम्र की सीमाओं को तोड़ते हुए फिर से सक्रिय हों और अपनी रचनात्मकता को जिएं।

‘देवी’ नहीं, ‘इंसान’ के रूप में मां को देखें

सयाली ने अपनी बात रखते हुए कहा,

“हमने मां को देवी बनाकर pedestal पर रख दिया है, लेकिन उसी कारण हमने उनके व्यक्तिगत जीवन को महत्व देना छोड़ दिया है। हमें यह पूछना चाहिए कि मां क्या खाना चाहती हैं, क्या पहनना चाहती हैं, कैसे जीना चाहती हैं।”

मां भी करें अपनी भावनाओं पर बात

सुश्री रश्मि ने कहा कि

“हम तो मां का ख्याल रखें ही, लेकिन मां खुद भी अपनी जरूरतों, इच्छाओं, सपनों और स्वास्थ्य को लेकर खुलकर बात करें। अपने जीवन के निर्णयों में वह स्वयं को केंद्र में रखें, न कि सिर्फ परिवार को।”

अभियान का लक्ष्य – मां को पहचान देना

संस्था की संस्थापक सचिव कुमुद सिंह ने बताया कि “माँ एक व्यक्ति” अभियान का उद्देश्य माताओं को केवल त्याग और ममता की प्रतिमूर्ति के रूप में देखने से आगे बढ़कर उन्हें एक सोचने-समझने वाले व्यक्ति के रूप में स्थापित करना है।

“यह अभियान माताओं के स्वास्थ्य, शिक्षा, आत्मसम्मान और उनके खोए हुए सपनों को फिर से जिंदा करने की दिशा में काम कर रहा है। हम चाहते हैं कि मां भी अपने जीवन को केवल दूसरों के लिए नहीं, अपने लिए भी जिएं।”

आभार और संकल्प

कार्यक्रम का समापन शहनाज़ अली के आभार प्रदर्शन के साथ हुआ, जिन्होंने कहा कि

“यह आयोजन सिर्फ एक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि आत्मविश्लेषण और सामाजिक परिवर्तन की एक सशक्त शुरुआत है।”


अभियान की विशेष बातें:

  • मातृत्व की पारंपरिक छवि को चुनौती देना

  • मां को एक स्वतंत्र और स्वायत्त व्यक्ति के रूप में मान्यता देना

  • मां के स्वास्थ्य, शिक्षा, आत्मसम्मान और सपनों को प्राथमिकता

  • हर परिवार को यह सोचने के लिए प्रेरित करना कि मां सिर्फ ‘रोल’ नहीं, ‘व्यक्तित्व’ भी हैं।

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